Monday, August 8, 2011

I AM KALAM FROM BIKANER (आई एम कलाम फ्रोम बीकानेर)


सौजन्य-गूगल.कॉम
हिन्दी सिनेमा में रोज़-रोज़ नए प्रयोग हो रहे है। इन्ही प्रयोगों की वजह से फिल्म निर्माता लीक से हटकर कुछ नया कर रहे है। इन्ही प्रयोगों के चलते पर्द पर कई किस्म के नए प्रयोग देखने को मिले,जिसमें से एक प्रयोग है बच्चो को लेकर फिल्म बनाना।


स्टेनली का डिब्बा फिल्म में बाल मजदूरी जैसे अहम मुद्दे को उठाया है तो तारे जमीं पर फिल्म में डिस्लेक्सिया के बारे में बताया गया था। चिल्लर पार्टी फिल्म में एक कुत्ते के लिए बच्चों ने चड्डी आंदोलन ही खडा कर दिया।

इसी कड़ी में हाल ही में रिलिज हुई फिल्म आईएम कलाम भी दिल को छू लेने वाली फिल्म है। बीकानेर में एक गरीब लड़के छोटू (हर्ष मायर) की कहानी पर आधारित यह फिल्म राजस्थानी परिवेश में बनी है। फिल्म में बड़े ख़्वाब देखने वाला छोटू भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम के विचारो से प्रभावित होकर, अपनी लगन और मेहनत से पढाई शुरू कर देता है। पूर्व राष्ट्रपति कलाम को युवाओं का आईकॉन मनाते हुए फिल्म की कहानी लिखी गई है। जिससे लाखों युवा उनकी तरह बनने का सपना देखते हैं। 

छोटू भी कई दिक्कतों के बावजूद बड़ा बनने का सपना देखता है। वह भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम के जीवन और विचारों से इतना प्रभावित होता है कि, खुद का नाम कलाम रख लेता है। छोटू उर्फ ​​कलाम भाटी दा ढाबे पर काम करता है। जिसका मालिक भाटी (गुलशन ग्रोवर) है। ढाबे के ठीक सामने से  बीकानेर के राजकुमार रणविजय (हतन साद) प्रतिदिन अपने स्कूल की बस लेने आता है। छोटू उर्फ कलाम मौका लगते ही उससे दोस्ती गांठ लेता है। इसके बाद ढाबे पर ही उसकी मुलाकात फ्रांस से आई एक संगीतकार लुसी (बीट्रिस ऑर्डिक्स) से होती है।

फिल्म के डायरेक्टर नीला माधब पांडा ने राजस्थानी परिवेश को इतनी हकीकत के साथ पर्दे पर उतरा है कि कही भी आप को बोरियत का अहसास नही होता।

फिल्म में भाटी का किरदान निभा रहे बैड मैन यानि गुलशन ग्रोवर ने एक निजी समाचार पत्र को दिए इंटरव्यू में कहा कि, आई एम कलाम की बात ही कुछ और है। मैं कह सकता हूं कि आज तक मैंने जितनी भी फिल्में कीं हैं, उनमें से कुछ बेहतर फिल्मों का नाम लेना हो तो, उनमें एक है आई एम कलाम। मुझे बहुत खुशी है कि इस का मैं हिस्सा हूं।

गन्ना चूस के नहीं, हजूर चाय की चुस्की..

असल में फिल्म में भाटी के ढाबे की यह पंच लाइन है।

फिल्म में बाल मजदूरी, बच्चों की अशिक्षा सहित कई मुद्दों को उठाने वाले छोटू उर्फ कलाम को 58वें फिल्म फेयर अवार्ड में बाल कलाकरो में सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का पुरस्कार, गोवा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में ज्यूरी अवार्ड और लॉस एंजिलिस फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट ऑडियंस के पुरस्कार से नवाजा गया है। अब तक इस फिल्म को 12 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

Tuesday, June 14, 2011

कशमकशः सुखनलता और रुपेश की प्रेमकथा


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सुखनलता ने रुपेश का हाथ कंधे से हटाते हुए कहां, क्या करते हो...बोरा गए हो क्या ?.
रुपेश एकदम सकपका गया और धीरे से उसने सुखनलता के कंधे से अपना हाथ खिंच लिया।

तुमको हो क्या गया है सुखन ?. रुपेश ने रुआसी आवाज में सवाल किया ?.

सिनेमा हॉल में रुपेश की आवाज इको-लाउडस्पीकर बनकर गूंज गई। लेकिन सुखनलता को इसका इल्हाम नही था क्योंकि वह तो बांग्ला मे बनी फिल्म नौका डूब का हिन्दी संस्करण कशमकश देखने में तालीन थी।
सुखनलता और रुपेश अपने-अपने दफ्तर से टाइम निकाल कर गुरूदेव रवींद्र नाथ टैगोर की लघु कहानियों के संग्रह 'गाल्पो गुच्चो' (Galpo Guchho) में प्रकाशित (1912 ) कहानी नौका डूब पर आधारित बांग्ला फिल्म का हिंदी वर्जन ‘कशमकश’ देखने आए थे।

फिल्म प्रारंभ होने पर रुपेश को कुछ नही समझ आ रहा था। लेकिन सुखनलता जानती थी कि ‘नौका डूब’ पर पहली बार 1947 में नितिन बोस ने हिन्दी और बंगाली में फिल्म बनाई थी। जिसके हिन्दी वर्जन में यूसुफ खान यानि अपने दिलीप कुमार और बंगाली संस्करण में अभि भट्टाचार्य नायक की भूमिका में थे। फिर ऋतुपर्णो घोष ने 1920 के कोलकत्ता और बनारस की पृष्ठभूमि में इस फिल्म को बंगाली भाषा में बनाया।  जिसको सुभाष घई ने हिन्दी दर्शकों के लिए ‘कशमकश’ का नाम दिया।

रुपेश फिल्म बीच में ही छोडकर जाना चाहता था, क्योकि उसे फिल्म समझ नही आ रही थी दूसरे तरफ सुखनलता का झिड़कना भी उसे पसंद ना था ।

सुखनलता ने प्रेम से रुपेश को समझाने का प्रयास किया।

दुनिया जो चाहे स्त्री-पुरुष के रिश्ते को अपनी अलग-अलग मनगढ़त परिभाषाएं देती हो लेकिन वह उनके बीच जन्में विश्वास की सच्चाई को कभी नही समझे पाती।

प्यार के रास्ते में स्त्री-पुरुष हर हालत और हर दौर में अपने रिश्तों की एक ही परिभाषा रचते है। जिसका मूल अर्थ होता है समर्पण और त्याग।

रात के सनाटे में जब नायक रमेश (जिशुसेन गुप्ता) अपनी प्रेमिका हेमनलिनी (राइमा सेन) के सामने प्रेम-विवाह का प्रस्ताव रखता है, तो नायिका लोक-लाज की मर्यादा और सभ्य समाज का परिचय देते हुए संयम के साथ रमेश को आश्वासन देती है कि सुबह होने पर वह अपने पिता से बात करेगी।

लेकिन अपने मंझधार में फंसा रमेश भोर होने तक का इंतेजार नही कर पाया और कई वर्षो तक हेमनलिनी से मिलने नही पहुंचा। अंतः हेम के पिता उसका विवाह बनारस के एक डॉक्टर के साथ तय कर देते है। तभी अपने मंझधार की नाव किनारे लगाकर कर रमेश अचानक से बनारस के घाट में हेमनलिनी से मुलाकात करता है।

हेमनलिनी का मन अपने प्रथम प्रेम की ओर झुक जाता है और वह अपनी शादी के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए पिता से आज्ञा मांगती है।

हेमनलिनी के पिता उसके शादी प्रस्ताव पर पुर्नविचार करने की अनुमति नही देते हुए सवाल खड़ा कर देते है, कि जो व्यक्ति रात के अंधेरे में प्रेम-विवाह प्रस्ताव रखकर वर्षो तक गायब रहा हो, तुम उसके साथ कैसे विवाह कर सकती हो ?.

हेमनलिनी ने सहजतापूर्वक जवाब दिया, पिता जी ! वह गायब नही हो गए थे,बल्कि खो गए थे और हमने उन्हें खोजने की कोशिश ही नही की। अब जब वह मिल गए है तो फिर सोच-विचार कैसा।

हेमनलिनी की बात सुनकर रुपेश के शरीर में कंपन सा होने लगा। क्योंकि कुछ ही दिनों पहले सुखनलता ने भी अपने पिता से यही बात कही थी जब रुपेश अचानक से उसे छोड़ कर चले गए थे।

फिल्म खत्म हो चुकी थी, लेकिन रुपेश की आंखों से नीर बह निकले।

गुरुदेव की कहानी पर आधारित फिल्म बने और उसमे गीत-संगीत उच्च कोटि को ना हो तो गुरु को श्रृद्धांजलि कुछ अधूरी सी रह जाती है। इसलिए सुभाष घई ने मशहूर गीतकार गुलजार को फिल्म के हिन्दी गीत लिखने का जिम्मा सौंपा था। जिसके बाद घई ने एक प्रेसवार्ता में कहा कि, "मैं हिन्दी दर्शकों को इस खूबसूरत फिल्म को देखने से वंचित नहीं करना चाहता, इसलिए मैंने इसे हिन्दी में बनाया है और इसके गीत गुलजार साहब से लिखवाए हैं."

गुलजार साहब ने गुरुदेव के बांग्ला गीतो को हिन्दी में ना सिर्फ रुप दिया बल्कि उसमें पूरे बांग्ला समाज को शामिल कर दिया। इन मधुर गीतो को अपने सुरीले संगीत से सजाने का काम किया, राजा नारायण और देव सुजॉय घोष ने। साथ ही फिल्म की पृष्ठभूमि में रवींद्र के संगीत ने दर्शोको का मन मोह लिया।

सुखनलता ने प्रेम-पूर्वक रुपेश के बालों में हाथ फैरा तो वह एक गीत गुनगुनान लगा। जिसे हरिहरण ने गाया था।
खोया क्या जो पाया हीं नही,खाली हाथ की लकीरें है,
http://www.youtube.com/watch?v=l2lCFEbcfWo

फिल्म में श्रेया घोषल ने दो गीतो को अपनी आवाज दी है। फिल्म का पहला गीत उनकी ही आवाज से शुरु होता है।

मनवा भागे रे....सौ सौ तागे रे...
http://www.youtube.com/watch?v=3jcgCHach6A

दूसरा गीत उन्होनें गाया है, तेरी सीमाएं कोई नही है, बहते जाना है,बहते जाना है....
http://www.youtube.com/watch?v=3vnNb3wLl7o&feature=related

सुभाष घई ने गुरुदेव के गीतों में बांग्ला मूलभाव और प्रेम के लिए गुलजार को चुना तो उसमें बंगाली आत्मा डालने के लिए श्रेया के साथ-साथ मधुश्री को भी चुना। और ऐसा करके उन्होनें कुछ गलत नही किया है, क्योंकि नाव मेरी ठहरे गीत में मधुश्री ने हरिहरण के साथ मिलकर वाकई गीत में आत्मा डाल दी।

नाव मेरी ठहरे जाने कहां...घाट होते नही...सागरों में कहीं... 
http://www.youtube.com/watch?v=iP-8kSHIKbo&feature=related

आनंद-लोके, मंगल-लोके नामक गीत फिल्म में बांग्ला भाषा में ही रखा गया है। ऐसा इसलिए किया गया है, क्योंकि अगर इस गीत के बोल और संगीत को बदल दिया जाता तो गुरुदेव की शान मे गुस्ताखी हो जाती। वैसे भी इस गीत को ना जाने कितने गीतकारों ने अपने सुरे दिए है।
http://www.youtube.com/watch?v=ysVHkT5QQRM&feature=related

अचानक से रुपेश की निगाह सुखनलता की हाथ घंडी पर गई, जो रात के नौ बजा रही थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उन्हें लगा कि यह कशमकश गुरुदेव रवींद्र नाथ टेगौर की नही बल्कि उनकी खुद की जिदंगी है। उन्होनें रवींद्र नाथ टेगौर को श्रृद्धांजली देते हुए प्रतिज्ञा की, कि जीवन में चाहे कितने भी भंवर आए लेकिन दोनो मिलकर अपनी नाव को किनारे जरूर लाएगें।

Saturday, January 22, 2011

बस ! अम्मा की रसोई नही थी...

नाटकों के महाकुंभ यानि भारत रंग उत्सव का आज समापन हो गया। एक सप्ताह तक चले इसे महाकुंभ का आगाज हुआ था चरणदास चोर के साथ और अंत हुआ फ्रांस के कलाकार लारेंट डेकाल के माइ परफार्मेस के साथ। एनएसडी के प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही एक अलग दुनिया का अहसास दिलाने वाले इस उत्सव में भारत की सांझी विरासत को देख कर लोग मंत्रमुग्ध हो गए।

कला और संगीत की इस मंड़ी में देखने के लिए सब कुछ था, हर शाम एक नई सुबह थी और हर सुबह एक नई रात। रंगमंच की इस चकाचौंध ने विदेशी महमानों को भी चकाचौंध कर दिया है। 20 देशों के कलाकारों ने यहां अपनी कला का प्रदर्शन किया। जिसमें देसी-विदेशी कुल 81 नाटक हुए। जिनमें से 23 विदेशी थे। चीन, पाकिस्तान, फ्रांस, यूके, जापान, लंदन, श्रीलंका, संयुक्त राज्य अमेरिका, पोलैंड, बांग्लादेश, नेपाल, इटली के अलावा इस महोत्सव पहली बार शामिल हुए चिली, बोलिविया, इजिप्ट, अर्जेटीना, सर्बिया व यूक्रेन ने अपने प्रस्तृति से सबका मन मोह लिया।

छठे दिन ड्रीम ऑफ तालीम को मुंबई के प्रसिद्ध निर्देशक सुनील शानबाग ने नाटककार सचिन कुंदालकर के आलेख पर अपने कलाकारों के साथ काफी ख़ूबसुरती के साथ पेश किया। इस नाटक के जरीय हाल ही में अलविदा कहने वाले प्रतिभावान निर्देशक चेतन दातार को श्रद्धांजलि है। मंच पर केवल मेज, दो कुर्सियां और एक लैपटाप के द्वारा नाटक का मंचन करने वाले सुनील शानबाग पिछले काफी समय से दिल्ली के दर्शकों के बीच चर्चा का विषय रहे है। सुनील शानबाग ड्रीम ऑफ तालीम में समलैंगिकता जैसे गंभीर विषय बड़ी सावधानी के साथ उठाया है। नाटक के संवादों में समलैंगिकता की प्रक्रिया सटिक तरीके से लिखा गया है। मराठी बोलते बोलते अचानक मां का हिन्दी फ़िल्म के संवाद बोलना दर्शकों का मन मौह लेता है। असल में यह वही पल होते जब दर्शक नाटक में पूरी तरह से डूब जाते है।

स्त्री संबंधों पर आधारित सेंट्रल अकादमी ऑफ ड्रामा, चीन के नाटक The Amorous Lotus Pan इस उत्सव में चर्चा का विषय बना। प्रो. चेन गैंग द्वारा निर्देशित यह नाटक चीनी उपन्यास आउटलाज ऑफ दि मार्श की एक पात्र पैन जिनलियन पर आधारित था।

पैन जिनलियन के माता-पिता उसे बचपन में छोड़ कर चल बसते है। हालत और परिस्थितियों के बीच उसे झेंगदाऊ को बेच दिया जाता है जो एक अमीर आदमी होता और पैन को अपनी दूसरी पत्नि बनाना चाहता है लेकिन पैन जिनलियन इस बात के लिए राजी नही होती। गुस्से से पागल झेंग उसके साथ बलात्कार करता है और एक कायर और बेवाकूफ बौने व्यक्ति वुडा को दे देता है। इसी दौरान पैन वुडा के भाई सौंग के साथ प्यार करने लगती है लेकिन सौंग उसके प्यार को नही अपनाता। समय के साथ साथ कहानी आगे बढ़ती है तो पैन जिनलियन की ज़िदंगी में एक और अमीर व्यक्ति झिमैन आता है। जिसके कहने पर वोह वुडा को ज़हर देकर मार देती है। वुडा की मौत को उसका भाई सौंग बर्दाशत नही कर पाता और प्रतिशोध की ज्वाला में जलकर वह पैन जिनलियन की हत्या कर देता है।

हाल ही रिलिज हुई प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म टर्न 30 में नायिका गुल पनाग भी अपने प्रेम को खोने-पाने और अपने भविष्य के प्रति सजग रहने के साथ साथ भारतीय समाज में व्याप्त स्त्री सोच को बयान करती है। फ़िल्म और चीनी नाटक दोनों में ही स्त्री मनोविज्ञान को समझा जा सकता है।

पूरे सप्ताह इतने सुनहरे पल बिताने के बावजूद मेरे मन का एक कोना अभी भी खाली रहे जाता है। Theater Café में लगी गुमटियां पर ना जाने कितने कलाकारों और लोगों ने चाय की चुसकियों का आनंद उठाया होगा। लोगों ने दिल्ली के स्वादिष्ट व्यंजनों का खाट-मूढ़ों पर बैठकर लुत्फ उठाया लेकिन मुझे इस कैफे में अम्मा की रसाई याद आ गई है। शायद नये ज़माने ने पूरानी यादों को कुछ धुंधला सा कर दिया है।